15-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

आत्म-घाती महापापी न बनकर डबल अहिंसक बनने की युक्तियाँ

अपने गुणों और अपनी शक्तियों को वरदान रूप में देकर मनुष्य-आत्माओं को सर्व-श्रेष्ठ एवं महान् बनाने वाले विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा बोले -

आज बापदादा बच्चों का गुणगान कर रहे थे। गुणगान करते देखा कि ड्रामा के अन्दर बच्चों का कितना ऊंचा और सर्वश्रेष्ठ पार्ट है। वह भी कल्प में इसी संगमयुग पर ही महिमा योग्य बनते हैं। इसी युग में स्वयं परमात्मा भी आप श्रेष्ठ आत्माओं की महिमा गाते हैं। इस समय ही तुम डबल महिमा के अधिकारी बनते हो। एक बाप समान मास्टर सागर बनते हो, और जो बाप के गुण हैं व शक्तियाँ हैं उन दोनों में मास्टर बनते हो। साथ-साथ आत्मा की श्रेष्ठ स्टेज की भी महिमा है - सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण... इस महिमा व् भी प्रैक्टिकल में अनुभव अभी करते हो। सोलह कलायें क्या हैं? मर्यादायें क्या हैं? इन सब बातों की नॉलेज इस समय ही धारण करते हो। तो ही डबल महिमा के योग्य बनते हो। दो जहान के मालिक बनते हो, डबल पूजा के योग्य बनते हो। डबल वर्सा ‘मुक्ति और जीवन-मुक्ति’ इन दोनों के अधिकारी बनते हो, डबल ताजधारी बनते हो, डबल अहिंसक बनते हो और डबल बाप के लाडले और सिकीलधे बच्चे बनते हो। ऐसे बच्चों की श्रेष्ठता का गुणगान कर रहे थे कि बच्चे कैसे बालक बन कर विश्व के मालिक के भी मालिक बन जाते हैं। ऐसे अपनी महिमा क्या स्वयं भी सुमिरण कर हर्षित होते हो? इस सुमिरण से कभी भी माया का वार नहीं हो सकेगा। 

बाप आज देख रहे थे कि कौन-कौन से बच्चे किस स्टेज तक पहुँचे हैं? मुख्य बात है बाप समान सर्वगुणों में मास्टर सागर कहाँ तक बने हैं? सर्व शक्तियों का वर्सा प्रैक्टिकल जीवन में कहाँ तक अनुभव किया है? साथ-साथ आत्मा की जो श्रेष्ठ व महान् स्टेज है - सम्पूर्ण निर्विकारी, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पन्न, मर्यादा पुरूषोत्तम और सम्पूर्ण अहिंसक - इस महानता को कहाँ तक जीवन में लाया है? गुण सम्पन्न अवस्था का केवल गायन ही है और सर्वगुण सम्पन्न की अवस्था में यदि एक भी गुण की कमी है तो उन्हें फुल महिमा के योग्य नहीं कहेंगे। तो अपने आप को चेक करो कि सर्व गुणों में से कितने गुणों में और कितने परसेन्टेज में स्वयं में गुणों की कमी है। सोलह कला अर्थात् सर्व विशेषताओं में सम्पन्न अर्थात् जैसा समय वैसा स्वरूप बना सकें, और जैसा संकल्प वैसा स्वरूप में ला सकें। बाप द्वारा प्राप्त हुए पुरूषार्थ की विधि द्वारा सर्व सिद्धियाँ समय पर स्वयं के प्रति व सर्व-आत्माओं की सेवा के प्रति कार्य में लगा सकें। सर्व-शक्तियों को अनुभव में लाते हुए सर्व-आत्माओं के प्रति उन्हों की आवश्यकता प्रमाण, वरदानी रूप में दे सकें। सर्व बातों में बैलेन्स रख सकें अर्थात् अभी-अभी लवफुल और अभी-अभी लॉ-फुल बन सकें। अभी-अभी महाकाली रूप और अभी-अभी शीतला रूप बन सकें। ऐसी सर्व विशेषताएं  अर्थात् सोलह कला सम्पन्न। इसके लिये सर्व-कर्मेन्द्रियों और सर्व-आत्मिक शक्तियों, मन, बुद्धि और संस्कार - इन सर्व पर अधिकार चाहिए। ऐसा अधिकारी ही सोलह कला सम्पन्न बन सकता है। 

कोई भी कमज़ोरी वाला कला नहीं दिखा सकता अर्थात् विशेषतायें नहीं दिखा सकता और न ही अनुभव करा सकता है। इसी रीति से अपने को चेक करो कि सर्व विशेषतायें धारण की हैं अर्थात् सोलह कला सम्पन्न बने हैं? सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् सर्व विकार सर्व वंश-सहित, अंश-मात्र भी अर्थात् संकल्प व स्वप्न-मात्र में भी न हो। उसको कहते हैं सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोत्तम अर्थात् हर संकल्प, हर सेकेण्ड और हर कदम श्रीमत् अनुसार अर्थात् मर्यादा के प्रमाण हो। संकल्प भी वा एक कदम भी ईश्वरीय मर्यादा की लकीर के बाहर न हो। अमृतवेले से रात के सोने तक हर कदम मर्यादा अनुकूल, स्मृति, वृत्ति, और दृष्टि भी सदा ही मर्यादा प्रमाण हो। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम कहाँ तक बने हो? 

डबल अहिंसक अर्थात् अपवित्रता अर्थात् ‘काम महाशत्रु’ स्वप्न में भी वार न करें। सदा भाई-भाई की स्मृति सहज और स्वत: अर्थात् स्मृति स्वरूप में हो। ऐसे डबल अहिंसक, आत्मघात का महापाप भी नहीं करते। आत्मघात अर्थात् अपने सम्पूर्ण सतोप्रधान स्टेज से नीचे गिर कर अपना घात नहीं करते। ऊंचाई से नीचे गिरना ही घात है। आत्मा के असली गुण-स्वरूप और शक्ति-स्वरूप स्थिति से नीचे आना अर्थात् विस्मृत होना यह भी पाप के खाते में जमा होता है। इसलिये कहा जाता है आत्मघाती महापापी। साथ-साथ अहिंसक आत्मा कभी खून नहीं करती। खून करना अर्थात् हिंसा करना। तो आप में से कोई खून करते हैं? जो बाप द्वारा दिव्य-बुद्धि व दिव्य-विवेक व ईश्वरीय-विवेक मिला है वह माया वश, परमत वश, कुसंग वश, या परिस्थिति के वश अगर ईश्वरीय विवेक को दबाते हो, तो समझो कि ईश्वरीय विवेक का खून करते हो, या दिव्य-बुद्धि का खून करते हो। बाद में फिर चिल्लाते हो कि चाहता तो नहीं हूँ लेकिन कर लिया, न चाहते हुए भी हो गया। गोया यह है ईश्वरीय विवेक का खून करना। झूठ बोलना, चोरी करना, ठगी करना व धोखा देना इसको भी हिंसा व महापाप कहा जाता है। तो तुम ब्राह्मण चोरी कौनसी करते हो? शूद्रपन के संस्कार स्वभाव व बोल व किसी के प्रति भावना, ब्राह्मण बनने के बाद कार्य में लगाते हो व अपनाते हो तो गोया शूद्रों की वस्तु चोरी करते हो। जबकि यह ब्राह्मणों की वस्तु ही नहीं है। तो दूसरों की वस्तु यूज़ करना अर्थात् ब्राह्मण बनने के बाद आसुरी व शूद्रपन के संस्कार व स्वभाव धारण करना अर्थात् हिंसा करना है। ऐसे ही झूठ कैसे बोलते हो? कहते हो हम ट्रस्टी हैं - सब कुछ आपका है - तन, मन और धन सब तेरा। फिर मैं-मन में मोह वश होकर चलते हो। तो मैं-पन लाना या मेरा समझना यह भी झूठ हुआ ना? कहना तेरा और करना मेरा - झूठ हुआ ना? वायदा करते हो तुम्हीं से खांऊ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ और तुम्हीं से सर्व- सम्बन्ध निभाऊं - लेकिन प्रैक्टिकल में अन्य आत्माओं से भी सम्बन्ध व सम्पर्क रखते हो। बाप की स्मृति के बजाय अन्य स्मृति भी साथ-साथ रखते हो। तो यह भी खून हुआ ना? वायदा है कि मेरा तो एक बाप, दूसरा न कोई। अगर वह नहीं निभाते तो यह भी झूठ हुआ। ऐसे ही धोखा और ठगी कौनसी करते हो? सबसे बड़ा धोखा स्वयं को देते हो कि जो जानते हुए, मानते हुए फिर भी स्वयं को श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित कर देते हो - यह हुआ स्वयं को धोखा देना। धोखे की निशानी है जिससे दु:ख की प्राप्ति होती है। साथ-साथ ब्राह्मण परिवार में भी धोखा देते हो। कहना एक और करना दूसरा, अपनी कमजोरी को छिपाकर बाहर से अपना नाम बाला करना या अपने को अच्छा पुरुषार्थी सिद्ध करना। यह एक दूसरे को धोखा देते हो। कोई भी गलती करके छिपाना यह भी धोखा देना है व ठगी करना है। तो डबल अहिंसक अर्थात् पुण्य आत्मा, महान् आत्मा, जिससे कोई प्रकार का पाप न हो। ऐसे अपने को चेक करो कि आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्टेज जो अभी सुनाई वह कहाँ तक धारण की है? ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का बाप भी गायन करते हैं। तो आज ऐसे बच्चों का गुणगान कर रहे थे व माला सुमिरण कर रहे थे। अच्छा। 

ऐसे सर्व महान्, सर्व योग्यतायें-सम्पन्न, गायन और पूजन योग्य और डबल अहिंसक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति! 

इस मुरली का सार

1. इस संगमयुग पर तुम बच्चे डबल महिमा के अधिकारी बनते हो। एक बाप समान गुण और शक्तियों के मास्टर सागर बनते हो, साथ-साथ आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्टेज की महिमा - सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, सम्पूर्ण अहिंसक और मर्यादा पुरूषोत्तम के योग्य बनते हो। 

2. सोलह कला सम्पन्न बनने के लिये सर्व-कर्मेन्द्रियों और सर्व आत्मिक शक्तियों पर अधिकार चाहिये। 

3. जिस व्यक्ति में सर्व विकार सर्व वंश सहित अंश-मात्र व स्वप्न-मात्र में भी न हो उसको कहेंगे - सम्पूर्ण निर्विकारी। 

4. अमृत वेले से लेकर रात के सोने तक हर संकल्प, हर सेकेण्ड, हर बोल, हर कर्म, हर कदम ईश्वरीय मर्यादा के अनुकूल हो - ऐसे व्यक्ति को ही मर्यादा पुरूषोत्तम कहेंगे। 5. डबल अहिंसक अर्थात् अपवित्रता अर्थात् काम महाशत्रु स्वप्न में भी वार न करे, सदा भाई-भाई की सहज स्मृति रहे। ऐसे डबल अहिंसक अपने सम्पूर्ण सतोप्रधान स्टेज से गिर कर आत्मघात नहीं करते।